" मृगतृष्णा " मृगतृष्णा सी मुझे चाहत हो रही है खुद से ही बेहिसाब मोहब्बत हो रही है मन बावरा हुआ जा रहा है मेरा कुछ इस मौसम की य...
" मृगतृष्णा "
मृगतृष्णा सी मुझे चाहत
हो रही है
खुद से ही बेहिसाब मोहब्बत
हो रही है
मन बावरा हुआ जा रहा है मेरा
कुछ इस मौसम की यूँ
इनायत हो रही है।
सोच रही हूँ आज खुलकर
इज़हार कर लूँ खुद से
जाने क्यूँ ये दिल्लगी बार
बार हो रही है
बारिश की ये जो बुंदे मन
को भीगा रही है
पत्थर से मोम ये मुझे
बना रही है।
बच्चों की तरह दौड़ने को
दिल मचल रहा है
कानों मे कुछ सरसराहट
सी छा रही है
अपने ही आलिंगन में
भर खुद को,
एक मज़बूत साथ महसूस
कर रही हूँ
किसी मंदिर में जलते दिये
की लौ सा,
अपने अंदर भी कुछ प्रज्ज्वलित
होता देख रही हूँ ।
– रीना अग्रवाल की कलम से
" वो अजनबी "
अचानक ज़िन्दगी में कभी ,
एक अन्जान सा शख़स आता है,
जो दोस्त भी नही,
हमसफ़र भी नही,
फिर भी दिल को बहुत ,
बहुत भाता है,
ढेरो बाते होती है उस से,
हज़ारों दुख सुख भी बंटते हैं,
जो बाते किसी से नहीं करते थे ,
वो भी हम उस से करते हैं ,
कोई रिश्ता नहीं है उससे ,
फिर भी उसकी हर बात
मानने का दिल करता है ,
कोई हक नहीं है उसका हमपर ,
फिर भी उसका हक जताना, हमको अच्छा लगता है ,
जब कुछ भी सुनने का मन ना हो तब भी ,
उसको सुनना अच्छा लगता है ,
अजीब बात है ,
कोई रिश्ता नहीं है उससे ,
फिर भी वो ,
अपनो से भी ज्यादा अपना लगता है ,
ज़िन्दगी है बहुत उदास सी ,
बस झमेले ही झमेले हैं ,
शायद खो ही देते हम खुद को ,
पर अब उसके कारन ,
जीने का दिल करता है ,
ऐसे ही बिना किसी बात पे ,
बस यूँ ही हंसने का दिल करता है ,
कोई नहीं हमारी चाहत ,
कि हम रिश्ता कोई बनाये उससे ,
ना कोई है उसकी ख्वाहिश ,
कि वो किसी बन्धन में बँध जाये हमसे ,
फिर भी साथ एक दुजे का ,
मन को बहुत भाता है ,
कभी कभी सोचती हूँ,
शायद इसी को जन्मों का रिश्ता कहतें हैं ,
जैसे पिछले जन्म का छूटा साथ कोई ,
इस जन्म में रूह का साथी बनके मिलता है ,
अजीब सा रिश्ता है ,
जिसे कोई नाम देने का दिल
नहीं करता है ,
पर वो मेरी ज़िन्दगी में एक
अहम जगह रखता है ,
ऐसे लगता है जैसे कुछ
पवित्र सा है, प्यारा सा है ,
मेरे दिल का एक कोना जैसे ,
उस ही के वजुद से महका करता है ,
·– रीना अग्रवाल
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